Saturday, September 20, 2008

Talaash...buss yun hi

This was my first poem, wrote this when I was in college 2nd year...!!

गर्मी की एक रात में,
मैं खड़ा था
एक कच्चे घर की
कच्ची छत के ऊपर
चारों तरफ़ था अँधेरा, सिर्फ़ अँधेरा,
और उसे दूर करने की चाह लिए,
वो तारे...!!

ठंडी हवा चल रही थी,
उड़ रहा था मेरा मन,
यहाँ वहां, जाने कहाँ कहाँ,
पूरब से पच्छिम,
शायद पुरवैया,
यही कहते हैं न उसे...??

मैं बस खड़ा था,
उस घने अंधेरे में,
मेरी आँखें बेचैन थीं,
कुछ खोज रहीं थीं,
शायद कुछ देखने की चाह थी,
पर क्या,
और क्यूँ,
नहीं जानता...!!

आंखें कभी ऊंचाइयों में,
कभी गहराइयों में,
कभी क्षितिज की ओर जाती,
जहाँ तक जा सकती थीं...!!

मन अभी भी उड़ रहा था,
शायद आँखों के साथ,
उसे भी तलाश थी एक चेहरे की,
पर किसका चेहरा...??
मुझे नही पता,
हाँ...शायद पता है...!!
पर ये नहीं पता,
की आंखें जो चेहरा देखना चाहती हैं,
अगर कहीं इसी अंधेरे में,
देख भी लिया,
तो क्या करूँगा मैं?
हसूंगा, या रो पडूंगा...??

फिर कुछ देर बाद,
आंखें घूम-फ़िर कर,
लौट आयीं,
और लौट आया मेरा मन!
क्यूंकि हवा अब थम सी गई थी...!!
साथ ही लौट आया मैं,
अपने ही अन्दर...!!

फिर सोचा,
ये आंखें पगला गई हैं,
ख़ुद को तो ठीक से देख नही पाती,
और तलाश है एक चेहरे की...?
वो भी इस अंधेरे में...?
इस घनघोर अंधेरे में,
जहाँ सुना है,
परछाई भी साथ छोड़ देती है...!!

1 comment:

Vishal said...

Was mere sher....sahi poems hain...keep it up! Apne man ke kavi ko hamesha jagaye rakhna ;)