This poem was the outcome of what I felt for Brati after reading the book 'Mother of 1084'.
सब कुछ लुटाने, ख़ुद भी अब मिट जाने को तैयार हूँ...
ज़िन्दगी ने क्या दिया, क्या खोया-पाया, क्या पता,
मौत के आगोश में खो जाने को तैयार हूँ...
दुनिया के बाज़ार, रिश्तों की बढती भीड़ से दूर,
इक नई दुनिया में जा, बस जाने को तैयार हूँ...
ज़िन्दगी है इक छलावा, किस पे अब कीजे यकीन,
दूर सबसे जाने, फ़िर न आने को तैयार हूँ...
कौन मैं, क्या हस्ती मेरी, क्या पता, क्या है सबब,
मौत ही इसका सबब बन जाए, मैं तैयार हूँ...
ज़िन्दगी अश्कों में भीगी इक इबारत सी रही,
मुस्कुरा के अलविदा कह जाने को तैयार हूँ...
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