Another poem as a result of the impact of 'Mother of 1084'.
ये शोर कैसा है?
अंधेरे उस कोने से आता,
कोई और क्यूँ नही सुन पता...??
जब लगा सन्नाटा बढ़ सा गया,
जब लगा वीरानी छाने लगे,
तब लगा की ये कुछ और नही,
मेरे ही मन के राग जगे...!!
जब राहें सिमटती लगने लगीं,
मंजिल मेरी और ही बढ़ने लगी,
यूँ लगा की ख़त्म हुआ ये सफर,
आंखों की आग भी बुझने लगी...!!
उजियारे से अंधियारे तक,
आबादी से वीराने तक,
बदलाव जो ऐसा होने लगा,
तब जाना मैं था बस...अब तक...!!
मन की सब परतें खुलने लगीं,
चुकते से लगे थे सारे हिसाब,
जो सवाल रहे थे सारी उमर,
अब मिलने लगे थे उनके जवाब...!!
अँधेरा प्यारा लगने लगा,
सन्नाटा मन को बहाने लगा,
उस पल तो ये भी लगने लगा,
सोया था अब तक, अभी जगा...!!
मन में अब कुछ भी शेष नहीं,
कोई क्लेश नही, न ही कोई थकन,
इक पावन सा एहसास हुआ,
जैसे सूरज की पहली किरण...!!
क्यूँ मौत से डरते हैं आख़िर,
क्यूँ बात समझ में आती नहीं,
मिट जायेगा ये सब कुछ इक दिन,
है मौत का तो सत्य यही...!!
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